रविवार, 13 अप्रैल 2014

कहानी-बदलती निगाहें

कहानी-बदलती निगाहें


वक्त के साथ लोग भी बदल जाते है,लेकिन स्मिता से मुझें ऐसी उम्मीद नहीं थी. मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये वही स्मिता है, जिसकी बड़ी-बड़ी आंखें खिड़की से मुझे झांकती रहती थी. ठीक दोपहर १२ बजे मेरे स्कूल का टाईम हुआ करता था. स्कूल का रास्ता उसके घर के सामने से ही गुजरता था. तब मैं आठवी क्लास में पढ़ा करता था और वो थी पांचवी क्लास में, सुबह की शिफ्ट में था उसका स्कूल. अपनी ड्रेस चेंज करने से पहले ही वो ठीक पहले अपने घर की खिड़की पर आ खड़ी होती थी मेरी एक झलक पाने के लिए और हां इस बात का खास ख्याल रखती थी वो कि मैं कहीं उसे देख ना लूं. शायद घर की सख़्त परवरिश कि वजह से वो ऐसा करती थी. परदे की ओट से झांकते हुए वो एक दिन पकड़ी भी गई. खिड़की से अमरुद के पेड़ पर लगे फल को तोड़ने का बहाना बनाकर वो अपनी मां के सवाल को आसानी से टाल गई, लेकिन उस दिन मेरा शक सही साबित हुआ. कुछ प्यार भरी निगाहे पल-पल मेरा पीछा कर रही हैं. शाम के पांच बजे हुआ करता था उसकी मैथ्स ट्युशन का टाईम और मेरे स्कूल से आने का. अपनी साईकिल पर सवार एक ख़ुशनुमा हवा के झोंके की तरह निकल जाया करती थी वो. मैं कई बार उसकी तरफ़ देखकर मुस्कराया भी लेकिन अंजान बनने की एक्टिंग बखुबी कर लिया करती थी वो. आंखो की इन गुस्ताखियों का सिलसिला कई साल चलता रहा. मैं कॉलेज में पहुंच चुका था और वो १२ वीं क्लास में.
हर रोज की तरह वो अपनी साईकिल पर सवार स्कूल की तरफ़ जा रही थी. तभी मेरे दोस्त ने अपना कंधा मुझे मारते हुए कहा. देख शैलेष वो जा रही हैं. उसका दुप्पटा साईकिल के पहिए में फंसने को ही था. उसकी निगाहे चोरी छुपी मुझे देख रही थी. तभी मैंने कहा मैडम क्या हवा में उड़ने वाली इस परी का जमीं पर आने का इरादा है,जरा अपना दुपट्टा तो संभाल लिजिए.शायद वो ये मज़ाक वो दिल से लगा बैठी और मुंह मोड़ते हुए आगे निकल गई.
                        

                     
 फाइनल ईयर के एक्ज़ाम दिये ही थे मैंने कि अपने पिताजी को खो दिया.घर परिवार की सारी जिम्मेदारी मेरे कंधे पर आ गई. आगे की पढ़ाई भी नहीं कर सका और ना चाहते हुए भी अपने परिवार के साथ गांव में रहने चला गया. पिताजी थे तो खेत और किसानी की चिंता किसे थी, हर महीने शहर आते थे वो घर खर्च और हमारी पढ़ाई की फीस देने के लिए. इस बार फसल बहुत अच्छी आई थी. गेहूं की बोरियों से भरा ट्रेक्टर लेकर मैं निकल पड़ा शहर की मंडी की तरफ़. काश आज पिताजी ज़िंदा होते तो मैं आगे की पढ़ाई कर पाता एक शानदार ओहदे पर होता मैं और उससे कह पाता शादी करोगी मुझसे.ये सोचते-सोचते शहर कब आ गया पता ही नहीं चला. गेंहू की अच्छी कीमत लगी थी इस बार. अपनी मेहनत की कमाई देखकर मैं अपने आसूओं को रोक ना सका.कई दिनों बाद अपने पुराने दोस्त के यहां जाना हुआ जिसकी अभी-अभी सगाई हुई थी  लेकिन मैं जा ना सका.सोचा अब जाकर उससे मिल आऊंगा.दोस्त तो मिला ही साथ ही उससे से भी सामना हो गया.लेकिन इस बार वो मुझे मिली एक तस्वीर के रुप में,मेरा वो दोस्त जो मेरे दिल की हर बात जानता था उसने ही मुझे वो एलबम पकड़ाया जिसके पेज नबंर तीन पर सजी थी उसकी तस्वीर,ठीक मेरे दोस्त की मंगेतर के बगल में. लाल सूट पहन हुए काफी समझदार लग रही थी वो.

                     मेरे दोस्त ने बताया हर पल उसकी नज़रे किसी को ढूंढ रही थी वो शायद वो मैं ही था. आखिरकार उसने मेरे दोस्त से पूछ ही लिया कहां गया वो तुुम्हारा ख़ास दोस्त अच्छा हुआ नहीं आया वरना महफ़िल का रंग फ़ीका पड़ते देर नहीं लगती. जान कर अनजान बनने की आदत गई नहीं थी उसकी,चलों मेरी बुराई ही सही इस बहाने उसने मुझे याद तो किया. दोस्त से अलविदा कहकर मैं गांव की तरफ़ निकल पड़ा.ढलती शाम अब रात में तब्दील हो गई थी..ऐसा लग रहा था अंधेरे में चमकते जुगनू मुझे रास्ता दिखा रहे थे. आखिर मैं घर पहुंच ही गया. बिस्तर पर लेटे-लेटे ही मैं सोचने लगा ,शादी की उम्र हो गई है मेरी और उसकी भी इस बार मैं उसे कह ही दूंगा अब तो खत्म करो ये लुका छिपी का खेल. अगली ही सुबह मैंने शहर की तरफ़ जाने वाली बस पकड़ी, बस स्टॉप पर उतरते ही मैं निकल पड़ा उस बैंक की तरफ़ जहां वो काम करती थी.कोई अगुंठी या गुलाब का फूल नहीं था मेरे हाथ में लेकिन उस दिन मैंने वो कहने का हौंसला जुटा लिया था,जो मैं सालों से नहीं कह पाया था.बैंक का लंच टाईम हो गया था जैसे ही कैंटीन में पहुंचा सामने की चेयर पर बैठी स्मिता की नज़र मुझ पर पड़ी. मैं उसकी चेयर की तरफ बढ़ा,लेकिन हमेशा की तरह नज़रे चुराने की बजाए वो मुझे देखकर हौले से मुस्कुराई, मुझे लगा शायद वो भी वहीं बात कहना चाहती हैं जो मैं सोच रहा था. उसने मुझे चेयर पर बैठने को कहा. स्मिता ने कहा तु्म काफी दिनों से नहीं दिखाई पड़े तुम शहर में. मेरी दिल की धड़कन बढ़ रही थी. शायद वो भी वहीं सोच रही थी जो मैंने सोचा था. लेकिन ये क्या स्मिता ने सामने की केबिन की तरफ़ बैठे एक सांवले से लड़के की तरफ़ इशारा किया. वो बैंक का नया मैनेज़र था. दिखने में मुझसा खुबसूरत नहीं था लेकिन उसके पास वो सारी खुबियां थी जो शायद मेरे पास नहीं थी एक ऊंचा ओहदा. मोटी सैलरी जिसकी ख़्वाहिश हर लड़की की होती है. उन लड़कियों में से स्मिता भी एक थी मैं भी न जाने क्या सोच कर स्मिता के पास आ गया. मैं कुछ कह पाता इससे पहले ही स्मिता ने मेरे आगे मिठाई का डिब्बा बढ़ाते हुए कहा. मेरी सगाई हो गई है.उसी बैंक मैनेज़र ने प्रपोज़ किया था स्मिता को. दोनों को बधाई देकर मैं किसी काम का बहाना बनाकर वहां से निकल पड़ा..अभी बैंक से निकला ही था कि याद आया कि अपने सनग्लासेस मैं बैंक में ही छो़ड़ आया था.पीछे पलटकर देखा तो स्मिता खि़ड़की से अब भी मेरी तरफ़ देख रही थी अपने हाथों में सनग्लासेस लिए लेकिन वापस बैंक जाने की हिम्मत में नहीं जुटा पाया. खिड़की से झांकताी नज़रो में अब वो चमक नहीं जो दस साल पहले परदे के पीछे से भी दिखाई पड़ती थी.

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