सोमवार, 21 अप्रैल 2014

अल्पायु

                                    कहानी - अल्पायु


अपने स्कूल के आम के पेड़ के नजदीक खड़ा थी तन्वी, ये वही पेड़ था जिस पर वो आम तोड़ने जा चढ़ी थी। नन्ही तन्वी जो बमुश्किल १० साल की थी.जैसे तैसे चढ़ तो गई लेकिन उतरना जैसे टेढ़ी खीर बन गया।
पेड़ के नजदीक से गुजरते हुए रोशन ने झिझकते हुए तन्वी से कहा क्या मैं आपकी मदद कर सकता हूं। तन्वी ने सिर हिलाते हुए हामी भर दी।
रोशन की मदद  से पेड़ से उतरी तन्वी बिना कुछ बोले अपने क्लासरुम की तरफ़ बढ़ गई।
रोशन उस वक्त १२ वीं क्लास  में पढ़ता था।
तब स्कूल के इम्तिहान चल रहे  थे यानी रोशन के  स्कूल छोड़ने का वक्त अब आ चुका था।शहर के नामी वैघ का बेटा था रोशन,रोशन ने शायद तन्वी को शायद पहली बार ही देखा था, लेकिन तन्वी रोशन को कुछ हद तक पहचानती थी।
हर साल मेरिट में पहले नबंर पर आता था रोशन स्पोर्ट्स में भी  वो ही आगे था।
स्कूल के बच्चों के लिए मिसाल था वो.आगे की पढ़ाई के लिए रोशन को शहर छोड़ना पड़ा।
रोशन तो शायद तन्वी को भूल भी गया.लेकिन २२  साल की तन्वी के जहन मेें रोशन की धुंधली तस्वीर जिंदा थी।
शायद इसलिए अपनी छोेटी बहन की शादी में आए रोशन को फौरन पहचान गई तन्वी।
तन्वी के जीजा का खास दोस्त था रोशन, घुंघराले बाल और मोहक मुस्कान वाला ये किशोर अब एक आकर्षक युवक में बदल चुका था।
           अपनी मां के साथ दुल्हे को तिलक लगाने तन्वी स्वागत द्वार पर खड़ी थी। तन्वी रोशन की तरफ देखकर मुस्काराई हैरान रोशन तन्वी को पहचान नहीं पाया और आगे बढ़ा.सात फेरों के बाद अब वक्त हो चला था दोपहर के खाने का.तन्वी की छोटी बहन दुल्हे के साथ बातचीत में मशगुल हो गई। रोशन ना जाने कहां गायब हो गया था। तभी तन्वी की बगल वाली चेयर पर बैठी काकी ने तन्वी को कुछा कहा। क्या कहा आपने जरा तेज आवाज में बोलिए तन्वी ने कहा। तेज आवाज में लाउडस्पीकर्स पर बज रहे गाने की वजह से काकी की आवाज तन्वी के कानों तक नहीं पहुंच पाई थी। काकी ने अपनी चेयर तन्वी के पास खिसकाकर कहा अरे मैंने कहा तुम कब मुंह मीठा कराओगी अब तो तुम्हारी छोटी बहन की भी शादी हो गई है।
तन्वी बस मुस्कुराकर रह गई.कहती भी क्या तन्वी, उसकी मां ने जो कहा २३ साल से पहले तन्वी की शादी करना ठीक नहीं होगा।
ऐसा उसकी कुंडली में जो लिखा था।
सोचते-सोचते कब बिदाई का वक्त आ गया पता ही नहीं चला.जान्हवी के आंसूओं को पोंछते हुए तन्वी ने कहा खत लिखना मत भूलना हां.फूलों से सजी कार की तरफ बढ़ी जान्हवी खिड़की से झांक कर अलविदा कहते हुए आगे बढ़ती हुई  कार के साथ कब आखो़ं के समाने से ओझिल हो गई पता ही नहीं चला।
जानह्वी की शादी हुए अभी कुछ ही दिन बीते थे कि रोशन के पिताजी तन्वी के घर रिश्ता लेकर पहुंचे।
ये बात जानकर बहुत खुश थी तन्वी, हो भी क्यों ना भला।
रोशन जैसे पति की चाह किस लड़की को नहीं होगी भला।
रेवेन्यू सर्विसेज़ में सिलेक्ट हो चुका था रोशन।

            मां के ठीक बाजू में खड़ी तन्वी  को मां ने चाय बनाने का इशारा किया।
हां कहते हुए तन्वी किचन की तरफ बढ़ी।
तन्वी अगले महीने २३ की होने वाली थी।
ना चाहते हुए भी तन्वी की मां को वैघ जी के सामने वो राज खोलने ही पड़ा जिसे वो तन्वी से बरसों से छुपाए थी। आपके रोशन में कोई कमी नहीं लेकिन ये रिश्ता नहीं हो सकता तन्वी के दिल में छेद है तन्वी की मां ने कहा।
तन्वी के फ़ैमली डॉक्टर ने ही ये बताया था कि वो अल्पायु है।
वैघ जी  ने कहा  कि क्या मैं उस डॉक्टर का नाम जान सकता हूं।
एक पुरानी डायरी को खोलते हुए तन्वी की मां ने डॉक्टर कुमार का पता आगे बढ़ाया।
तभी चाय की ट्रे लेकर तन्वी कमरे में  दाखिल हुई।
तन्वी ने चाय का कप वैघ जी  की तरफ़ आगे बढ़ाया.सब बातों से अंजान शादी के सपने बुन रही तन्वी अपने ही ख्यालों में गुम थी।
चाय खत्म करते हुए वैघ जी  ने कहा अब चलता हूं बहन जी।
                   
            तन्वी के घर से निकलते हुए वैघजी पुराने भोपाल की तरफ बढ़े यही पर डॉक्टर कुमार का दवाखाना हुआ करता था।दिल की बीमारियों के खास जानकार थे वो।
मरीजों की लंबी कतार लगा करती थी यहां।
१० मरीजों के बाद  वैघ जी का नंबर आया।
डॉक्टर ने वैघजी  को सामने वाली चेयर पर बैठने को कहा।
क्या तकलीफ है आपको डॉक्टर ने कहा.वैघ जी  ने कहा मुझे कोई तकलीफ़ नहीं है फिर क्यों आए है यहां डॉक्टर कुमार ने कहा।
मालूम हुआ है कि आप तन्वी के फैमली डॉक्टर है किस आधार पर आपने कह दिया की वो ज्यादा नहीं जिएगी।
देखिए मैं किसी का भाग्य नहीं लिख सकता लेकिन ये जरुर कह सकता हूं कि तन्वी की उम्र ज्यादा नहीं है, उसके दिल में छेद है।
जिंदगी कब दगा दे जाए इसका कोई भरोसा नहीं है।
डॉक्टर की बात पर पलटकर जी ने कहा भरोसा तो यहां किसी का नहीं है क्या आप जानते हैं कि आप कितने साल जिएंगें।
देखिए मुझे कोई शौक नहीं है किसी की तकदीर बताने का, अपने अनुभव के आधार पर मैंने ये बात कही थी।
माने या ना माने ये आपकी मर्जी डॉक्टर साहब ने कहा।
वैघ जी ने बिना कोई बहस किए वहां से निकलना  ही मुनासिब समझा।
वो यकीन नहीं कर पा रहे थे कि जिस तन्वी को वो अपनी बहू बनाने की चाह पाले हुए थे,वो बस कुछ सालों की ही मेहमान है।
                अगले दिन वो फिर तन्वी के घर पहुंचे और उसकी मां से कहा क्या मैं तन्वी से एक बार मिल सकता हूं।
तन्वी की मां ने अपना सिर हिलाकर हामी भरी,और बरामदे की तरफ़ इशारा किया जिसकी छत से टंगे झूले पर झूल रही तन्वी वैघ जी को देखकर अचानक ही रुक गई। आज वैघ जी ने एक पल में ही उस भूल को पकड़ लिया जिसे दिल के नामचीन डॉक्टर मिस कर गए थे.दरअसल तन्वी का दिल बाएं की बजाए दांई तरफ़ था जिसे डॉक्टर ने दिल में छेद करार दिया था।
दुनिया के तकरीबन १२ हजार लोंगो में से एक इंसान का दिल दाई तरफ़ होता है उस दौर में आज की तरह जांच के लिए मशीनें मौजूद नहीं थी। सिर्फ आले के भरोसे ही सारा काम होता था। बरामदे के दरवाजे पर खड़ी तन्वी की मां की तरफ देखते हुए वैघ जी ने कहा तन्वी इतनी जल्दी नहीं मरेगी।
आज उस राज का पर्दाफ़ाश हुआ जो तन्वी की मां सालों से अपने दिल में छुपाए हुए रखी थी।सच जानकर मां से ज्यादा हैरानी तन्वी को हुई कि किस तरह कुंडली के बहाने उसकी मौत के सच को कैसे मां ने सालों छुपा कर रखा।
अपनी मां के सीने पर सिर रख तन्वी निशब्द सी हो गई।
उसी आम के पेड़ की तरफ़ एकटक देख रही तन्वी अचानक यादों के झरोखे से तब बहार निकली जब रोशन ने आवाज दी अब कब तक इस पेड़ को निहारोगी।
अल्पायु तन्वी आज रोशन की पत्नी बन चुकी थी।
पैंसठ साल की दीर्घायु।



रविवार, 13 अप्रैल 2014

कहानी-बदलती निगाहें

कहानी-बदलती निगाहें


वक्त के साथ लोग भी बदल जाते है,लेकिन स्मिता से मुझें ऐसी उम्मीद नहीं थी. मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये वही स्मिता है, जिसकी बड़ी-बड़ी आंखें खिड़की से मुझे झांकती रहती थी. ठीक दोपहर १२ बजे मेरे स्कूल का टाईम हुआ करता था. स्कूल का रास्ता उसके घर के सामने से ही गुजरता था. तब मैं आठवी क्लास में पढ़ा करता था और वो थी पांचवी क्लास में, सुबह की शिफ्ट में था उसका स्कूल. अपनी ड्रेस चेंज करने से पहले ही वो ठीक पहले अपने घर की खिड़की पर आ खड़ी होती थी मेरी एक झलक पाने के लिए और हां इस बात का खास ख्याल रखती थी वो कि मैं कहीं उसे देख ना लूं. शायद घर की सख़्त परवरिश कि वजह से वो ऐसा करती थी. परदे की ओट से झांकते हुए वो एक दिन पकड़ी भी गई. खिड़की से अमरुद के पेड़ पर लगे फल को तोड़ने का बहाना बनाकर वो अपनी मां के सवाल को आसानी से टाल गई, लेकिन उस दिन मेरा शक सही साबित हुआ. कुछ प्यार भरी निगाहे पल-पल मेरा पीछा कर रही हैं. शाम के पांच बजे हुआ करता था उसकी मैथ्स ट्युशन का टाईम और मेरे स्कूल से आने का. अपनी साईकिल पर सवार एक ख़ुशनुमा हवा के झोंके की तरह निकल जाया करती थी वो. मैं कई बार उसकी तरफ़ देखकर मुस्कराया भी लेकिन अंजान बनने की एक्टिंग बखुबी कर लिया करती थी वो. आंखो की इन गुस्ताखियों का सिलसिला कई साल चलता रहा. मैं कॉलेज में पहुंच चुका था और वो १२ वीं क्लास में.
हर रोज की तरह वो अपनी साईकिल पर सवार स्कूल की तरफ़ जा रही थी. तभी मेरे दोस्त ने अपना कंधा मुझे मारते हुए कहा. देख शैलेष वो जा रही हैं. उसका दुप्पटा साईकिल के पहिए में फंसने को ही था. उसकी निगाहे चोरी छुपी मुझे देख रही थी. तभी मैंने कहा मैडम क्या हवा में उड़ने वाली इस परी का जमीं पर आने का इरादा है,जरा अपना दुपट्टा तो संभाल लिजिए.शायद वो ये मज़ाक वो दिल से लगा बैठी और मुंह मोड़ते हुए आगे निकल गई.
                        

                     
 फाइनल ईयर के एक्ज़ाम दिये ही थे मैंने कि अपने पिताजी को खो दिया.घर परिवार की सारी जिम्मेदारी मेरे कंधे पर आ गई. आगे की पढ़ाई भी नहीं कर सका और ना चाहते हुए भी अपने परिवार के साथ गांव में रहने चला गया. पिताजी थे तो खेत और किसानी की चिंता किसे थी, हर महीने शहर आते थे वो घर खर्च और हमारी पढ़ाई की फीस देने के लिए. इस बार फसल बहुत अच्छी आई थी. गेहूं की बोरियों से भरा ट्रेक्टर लेकर मैं निकल पड़ा शहर की मंडी की तरफ़. काश आज पिताजी ज़िंदा होते तो मैं आगे की पढ़ाई कर पाता एक शानदार ओहदे पर होता मैं और उससे कह पाता शादी करोगी मुझसे.ये सोचते-सोचते शहर कब आ गया पता ही नहीं चला. गेंहू की अच्छी कीमत लगी थी इस बार. अपनी मेहनत की कमाई देखकर मैं अपने आसूओं को रोक ना सका.कई दिनों बाद अपने पुराने दोस्त के यहां जाना हुआ जिसकी अभी-अभी सगाई हुई थी  लेकिन मैं जा ना सका.सोचा अब जाकर उससे मिल आऊंगा.दोस्त तो मिला ही साथ ही उससे से भी सामना हो गया.लेकिन इस बार वो मुझे मिली एक तस्वीर के रुप में,मेरा वो दोस्त जो मेरे दिल की हर बात जानता था उसने ही मुझे वो एलबम पकड़ाया जिसके पेज नबंर तीन पर सजी थी उसकी तस्वीर,ठीक मेरे दोस्त की मंगेतर के बगल में. लाल सूट पहन हुए काफी समझदार लग रही थी वो.

                     मेरे दोस्त ने बताया हर पल उसकी नज़रे किसी को ढूंढ रही थी वो शायद वो मैं ही था. आखिरकार उसने मेरे दोस्त से पूछ ही लिया कहां गया वो तुुम्हारा ख़ास दोस्त अच्छा हुआ नहीं आया वरना महफ़िल का रंग फ़ीका पड़ते देर नहीं लगती. जान कर अनजान बनने की आदत गई नहीं थी उसकी,चलों मेरी बुराई ही सही इस बहाने उसने मुझे याद तो किया. दोस्त से अलविदा कहकर मैं गांव की तरफ़ निकल पड़ा.ढलती शाम अब रात में तब्दील हो गई थी..ऐसा लग रहा था अंधेरे में चमकते जुगनू मुझे रास्ता दिखा रहे थे. आखिर मैं घर पहुंच ही गया. बिस्तर पर लेटे-लेटे ही मैं सोचने लगा ,शादी की उम्र हो गई है मेरी और उसकी भी इस बार मैं उसे कह ही दूंगा अब तो खत्म करो ये लुका छिपी का खेल. अगली ही सुबह मैंने शहर की तरफ़ जाने वाली बस पकड़ी, बस स्टॉप पर उतरते ही मैं निकल पड़ा उस बैंक की तरफ़ जहां वो काम करती थी.कोई अगुंठी या गुलाब का फूल नहीं था मेरे हाथ में लेकिन उस दिन मैंने वो कहने का हौंसला जुटा लिया था,जो मैं सालों से नहीं कह पाया था.बैंक का लंच टाईम हो गया था जैसे ही कैंटीन में पहुंचा सामने की चेयर पर बैठी स्मिता की नज़र मुझ पर पड़ी. मैं उसकी चेयर की तरफ बढ़ा,लेकिन हमेशा की तरह नज़रे चुराने की बजाए वो मुझे देखकर हौले से मुस्कुराई, मुझे लगा शायद वो भी वहीं बात कहना चाहती हैं जो मैं सोच रहा था. उसने मुझे चेयर पर बैठने को कहा. स्मिता ने कहा तु्म काफी दिनों से नहीं दिखाई पड़े तुम शहर में. मेरी दिल की धड़कन बढ़ रही थी. शायद वो भी वहीं सोच रही थी जो मैंने सोचा था. लेकिन ये क्या स्मिता ने सामने की केबिन की तरफ़ बैठे एक सांवले से लड़के की तरफ़ इशारा किया. वो बैंक का नया मैनेज़र था. दिखने में मुझसा खुबसूरत नहीं था लेकिन उसके पास वो सारी खुबियां थी जो शायद मेरे पास नहीं थी एक ऊंचा ओहदा. मोटी सैलरी जिसकी ख़्वाहिश हर लड़की की होती है. उन लड़कियों में से स्मिता भी एक थी मैं भी न जाने क्या सोच कर स्मिता के पास आ गया. मैं कुछ कह पाता इससे पहले ही स्मिता ने मेरे आगे मिठाई का डिब्बा बढ़ाते हुए कहा. मेरी सगाई हो गई है.उसी बैंक मैनेज़र ने प्रपोज़ किया था स्मिता को. दोनों को बधाई देकर मैं किसी काम का बहाना बनाकर वहां से निकल पड़ा..अभी बैंक से निकला ही था कि याद आया कि अपने सनग्लासेस मैं बैंक में ही छो़ड़ आया था.पीछे पलटकर देखा तो स्मिता खि़ड़की से अब भी मेरी तरफ़ देख रही थी अपने हाथों में सनग्लासेस लिए लेकिन वापस बैंक जाने की हिम्मत में नहीं जुटा पाया. खिड़की से झांकताी नज़रो में अब वो चमक नहीं जो दस साल पहले परदे के पीछे से भी दिखाई पड़ती थी.

व्यंग्य-आदर्श महिला बनने की ट्रेनिंग

  नीरज ने सोचा कि शहर की लड़कियों को आदर्श कैसे बनाया जाए, इसकी ट्रेनिंग दी जाए, तो कई लड़कियों की रुचि उसमें जगी। शहर की कई लड़कियों ने...