ये कौन ? फिरंगी ! हाय राम... जिन्होंने हमारे देश को गुलाम बनाया था। सतीश की 80
साली दादी बोली।
सतीश “अरे अंग्रेजों को भारत छोड़े हुए कई साल बीत चुके है वो तो बस घुमने फिरने आते है हमारे देश में, जैसे कि हम उनके देशों की सैर करने जाते हैं."
ये हमारे गांव में क्या कर रहा है ? "कुछ सलाह लेनी थी इसे आसपास के जंगल के बारे में। ये वाइल्ड लाइफ़ फोटोग्राफर है। हमारे जिले के कलेक्टर साहब ने इसे हमारा पता दिया कि मैं इसे जंगल का रास्ता बता सकूं।"
सतीश गांव का
सरपंच था तो पीटर उसके पास ही पहुंच गया, पीटर एंग्लो इंडियन है जिसके पूर्वजों का
भारत से नाता था लेकिन उसके दादा दादी स्वतंत्रता के बाद लंदन शिफ्ट हो गए थे। उसके
माता पिता का भी भारत आना ना हो सका।
पीटर ने टूटी
फूटी हिंदी में कहा “नमस्टे.”
फिर सतीश भी
अपनी टूटी फूटी अंग्रेजी में उसे गांव के जंगल के बारे में समझाने लगा।
तभी सतीश की
पत्नी जो किचन में खड़े होकर सब सुन रही थी ने अपने10 साल के बच्चे से कहा, “देख कितनी अच्छी अंग्रेजी बोलते है पीटर, तुम भी
रेडियो सुनकर प्रैक्टिस किया करो.”
“अरे मां वो
उनकी मातृभाषा है तो बोलेंगे ही ना अच्छे से.” बच्चे ने कहा।
तभी सतीश ने
पीटर से कहा कि वो खाना खाकर चलेंगे।
तब पीटर ने
कहा कि वो अपने पास रखे बिस्किट खाकर ही काम चला लेगा लेकिन सतीश के आग्रह को वो
टाल ना सका और मैथी की सब्जी दाल और रोटी
पापड़ का आनंद लिया।
कुछ देर बाद
पीटर की गाड़ी में सवार होकर सतीश जंगल की तरफ निकल पड़ा। सतीश ने ही उसे जंगल की
तरफ जाने वाले रास्ते के बारे में बताया। उबड़- खाबड़ रास्ते से हिचकोले खाते हुए
उनकी गाड़ी आखिरकार जंगल पहुंच गई।
मोर, बंदर,
झरने हरे- भरे वृक्ष क्या नहीं था नज़ारे की ख़ूबसूरती बढ़ाने के लिए। दोनों गाड़ी
से उतरे सतीश ने पीटर को चेताया कि कदम ज़रा संभालकर रखे, रास्ते में कभी कभार
जहरीले सांप भी होते है।
पीटर ने अपना
कैमरा निकाला और जंगल के प्राकृतिक सौंदर्य को अपने कैमरे में कैद करने लगा।
तभी उसकी नज़र
लकड़ी बीनने आई वनवासी कन्या पर पड़ी। सिर पर कसकर बंधा हुआ काले घने बालों का
जूड़ा पीले- भूरे रंग की घुटनों तक लिपटी साड़ी, बड़ा सा माथा, छोटी सी नाक, विशाल
नयन और गहरा सवाला रंग हल्का सा दबा चेहरा काफी मनोहर जान पड़ रहा था। आकर्षक काया
ऐसी कि स्वंय देवता ने काफी समय देकर मूर्ति की तरह गढ़ी हो।
पीटर ने उसकी
भी तस्वीर लेना चाही तो वो जंगली झाड़ की ओट के पीछे घबराकर छिप गई क्योंकि ये
मानव उसे किसी और दुनिया से आया लगा। नीली आंखे, भूरे बाल और इतना ज्यादा गोरा रंग
जो कि किसी श्वेतवर्ण वाले भारतीय में भी देखने को नहीं मिलता है।
वो ना तो सतीश
की भाषा जानती थी और ना पीटर की अंग्रेजी समझ सकती थी। उसकी तो अपनी ही बोली थी जो
कि जंगल के निवासियों में प्रचलित होती है, लेकिन सतीश उसकी बोली को टूटे फूटे
लहजे में बोल भी सकता था और समझ भी सकता था। पीटर की मंशा वो जान चुका था तो उसने
वनकन्या को समझाया कि वो सिर्फ उसकी तस्वीर लेना चाहता है जो कि भारत में प्रकाशित
नहीं होगी तो उसकी निजता बनी रहेगी जंगल में कहां ये पत्र पत्रिकाएं बिकती है वहां
के निवासी तो मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित है जहां शायद ही किसी का ध्यान गया हो।
सतीश ने कहा
कि उसे इन तस्वीरों के बदले कुछ डॉलर मिलेंगे, अब डॉलर भी समझ पाना उसके लिए टेढ़ी
खीर साबित हो रहा था तो पीटर ने सतीश को कहा कि वो डॉलर के बदले उसे कुछ रुपए दे
दे तो बात बन जाए।
तो इस तरह
3000 हज़ार रुपए में सौदा तय हुआ। पीटर ने झाड़ और झरने के पास उसके कई फोटो खींच
लिए। कहीं ह्ल्की मुस्कान तो कहीं संकोच वनकन्या के चेहरे पर साफ नज़र आ रहा था।
अपनी बोली में
उसने सतीश को कहा कि अब शाम होने आ रही है तो खूंखार जानवरों से खतरा हो सकता है
तो वो अपनी बस्ती की तरफ जाना चाहती है और उन्हें भी वहां से चले जाने की सलाह दे
डाली।
पीटर और सतीश
अपनी गाड़ी में बैठकर गांव की तरफ निकल पड़े। कुछ और शहरों की यात्रा करने के बाद
पीटर लंदन वापस चला गया वो एक मैग्जीन के लिए बतौर ट्रेनी फोटोग्राफर की तरह
नियुक्त था उसकी भारतीय वनों की चुनिंदा तस्वीरें मैग्जीन में छपी लेकिन सबसे
ज्यादा वाहवाही और प्रसिद्धी उसे वनसुंदरी की तस्वीरों के लिए मिली, उसे भी नहीं
पता था कि उसकी किस्मत इतने जल्दी चमक जाएगी उस मैग्जीन में उसकी सैलरी तीन गुनी बढ़ गई और जगह भी पक्की हो गई।
तो वहीं वन सुंदरी भी मामूली सी रकम पाकर फूली नहीं समा रही थी और अपनी टूटी फूटी
झोपड़ी की मरम्मत में जुट गई जो अक्सर बारिश के पानी से तबाह हो जाती थी। जिसके
बाद बचे खुचे पैसों से अपने परिवार के लिए नए कपड़े खरीदने के लिए ख़्बाव बुनते
बुनते मन ही मन मुस्कुराने लगी।
शिल्पा रोंघे
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