पुराने समय की बात है नगर में सेठ ध्यानचंद रहते थे। वो अपने एक बेटे और पत्नी के साथ सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे थे। उनकी दो बेटियां भी थी जिनका विवाह हो चुका था। उनके पुत्र का विवाह भी पड़ोसी शहर में रहने वाले कुलीन घर की कन्या से हुआ था। उनकी बेटे के भी दो छोटे – छोटे पुत्र थे। सब कुछ अच्छा चल रहा था, लेकिन सेठ को धीरे -धीरे महसूस होने लगा कि उसके बेटे बहू और पत्नी उसकी सेवा तो बहुत करते है लेकिन ऐसा बहुत कम होता था कि वो खाली वक्त में उनसे बात करने को आए हो, ना वो उनसे कभी अपने सुख की बात कहते ना कभी दुख की बात कहते, अपने ही घर में वो पराया सा महसूस करने लगे।
सेठ को एकांत में
तपस्या करना बहुत अच्छा लगता था उन्होंने सोचा क्यों ना जंगल में जाकर एक कुटिया
बनाई जाए और कुछ दिन तपस्या की जाए, भूखे प्यासे रहकर कुछ दिन तपस्या की तो स्वंय
भगवान प्रसन्न होकर प्रकट हुए और उन्होंने पूछा “बोलो वत्स तुम
मुझसे क्या चाहते हो?”
तभी ध्यानचंद बोले “मुझे ऐसी शक्ति दे दो कि मैं सामने वाले का मन पढ़ लूं.”
भगवान ने कहा “ठीक है मैं तुम्हें ये वरदान एक वर्ष के लिए देता हूं, याद रखना उससे पहले ना ये शक्ति खत्म होगी और ये अवधी खत्म होने के बाद ना
ये शक्ति तुम्हारे पास रहेगी.”
ध्यानचंद बोलो “जो आपकी इच्छा प्रभू”
कुछ ही देर में भगवान
उसकी दृष्टि से ओझल हो गए।
घर जाकर सेठ बहुत खुश
थे लेकिन उन्होंने इस वरदान वाली बात किसी को नहीं बताई।
एक दिन उन्होंने उनकी
पत्नी को आवाज दी “अरे सुनती हो मेरे लिए एक गिलास पानी लाना.”
तभी उनकी पत्नी ने उनके हाथ में पानी लाकर दिया।
सेठ ने कहा “कब से आवाज लगा रहा हूं सुनाई नहीं देता है क्या तुमको ?”
“मैं रसोईघर में थी” ये कहकर उनकी
पत्नी वहां से चली गई।
वो सोचने लगी “कितना क्रोधी है ये इंसान, ज़रा देर
क्या हुई तुरंत प्रतिक्रिया दे देते है। बीवी ना हुई कोई नौकरानी ही हो गई। मेरे
माता -पिता ने मुझे कैसे इंसान के पल्ले बांध दिया.”
सेठ ने उसके मन की बात जान ली और सोचा कि अब वो उसे किसी काम के लिए परेशान नहीं करेंगे।
अगले दिन उनका पुत्र
उनके पास आया कहने लगा “पिताजी आपने अभी तक अपनी जमीन मेरे नाम नहीं की है जल्दी
ही वसीयत बना दीजिए आपकी उम्र का भी कोई भरोसा नहीं है.”
सेठ ने पलटकर जवाब
दिया “बना दूंगा थोड़ा वक्त दो.”
तभी उनका बेटा बिना कुछ
बोले चला गया।
तभी सेठ ने उसके मन की
बात पढ़ ली, “ओह सब कुछ दबाकर बैठे हुए हैं इन्हें तो हमारी खुशियों
से मतलब ही नहीं है ये पिता है या जल्लाद.”
तभी सेठ ने सोचा कि वो
कुछ हिस्सा अपने पास रखकर अपने बेटे को दे देंगे।
एक दिन उन्होंने अपनी
बहू से कहा कि वो अपनी संपत्ती का कुछ हिस्सा अपनी बहनों को भी देना चाहते है।
तभी बहू ने कहा “आपकी जो इच्छा पिताजी.” उसके मन में आया विचार वो पढ़ चुके थे “सेवा करे हम मेवा खाएं बहनें, पता नहीं ये इस दुनिया और कितना लंबा जीवित
रहेंगे और हमें अपनी उंगलियों पर नचाएंगे.”
सेठ का परोपकारी स्वभाव का था लेकिन उसके कंजूस और हमेशा आदेश देने वाले स्वभाव के कारण उनके घर के लोग उनसे थोड़े नाराज़ रहने लगे थे लेकिन ये बात जताते नहीं थे।
सबके विचार जानने के
बाद सेठ का मन दुख से भर गया, “ओह मैंने ये कैसा वरदान मांग लिया अब तक तो
सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन अचानक ही मन कड़वाहट से भर गया है, ये वरदान तो एक साल
तक यूं ही चलने वाला है तब तक तो बात और भी ज्यादा बिगड़ जाएगी, जाने कितनी अनकही बातें मेरे सामने आ जाएंगी नहीं जानना चाहता मैं और
ज्यादा सच.”
तभी शाम को उन्होंने
अपने बेटे, पत्नी और बहू को बुलाकर कहा “ सुनो मैं एक साल के लिए बनारस जाना चाहता हूं शांति की
तलाश में, फिर लौट आउंगा.”
सब ने उनके फ़ैसले को
स्वीकार कर लिया ये सोचते हुए कि चलो वो अब कम से कम अपनी इच्छा का जीवन तो जी
सकेंगे।
अगले दिन सेठ अपने घर
से बनारस की तरफ जाने के लिए निकले सभी ने उनको हंसते हंसते अलविदा कहा।
तभी सेठ ने सोचा सच है
कभी अपनों को परखना नहीं चाहिए अगर ऐसा कर लो तो रिश्तों के बीच अपनापन नहीं रह
पाता है।
शिल्पा रोंघे
© सर्वाधिकार सुरक्षित, कहानी के सभी पात्र काल्पनिक है जिसका जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है।
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