समुंदर की विशाल लहरें विशाखा के पैरों से टकरा रही थी वो समुंदर के और भीतर चली जा रही थी। जैसे कि अपना सारा दुख दर्द वो पानी से कह देना चाहती हो। आज वो पूरी तरह भय मुक्त हो चुकी थी। तभी विष्णु की आवाज आई। ये विशाल लहरें तुम्हें निगल जाएंगी क्या इसका आभास नहीं तुम्हें। कौन सा हम इस दुनिया में जीवन- भर रहने को आए है, जो इतना डर कर रहना।
विष्णु ने कहा “लगता है तुम्हे दर्शनशास्त्र सूझ रहा है.”
वैसे आपका शुभनाम
“विष्णु चेन्नई से आया हूं.”
“तुम्हारा हिंदी बोलने का लहजा देखकर लगा ही। वैसे मैं भी महाराष्ट्रीयन हूं तो हिंदी समझ लेती हूं लेकिन थोड़ा लिखने पढ़ने में मुश्किल होती है.”
बात करते-करते दोनों किनारे को छोड़कर रेत से घिरे एक छोटे से पत्थर के पास बैठ गए। वैसे मेरी आदत है अंजान लड़कों से बात नहीं करने की लेकिन तुम भले लड़के लगते हो।
यूं ही गुफ़्तगू करते करते विष्णु की निगाह विशाखा के लिबास पर पड़ी एक लंबा सा स्कर्ट पहना हुआ था उसने, उसके साथ मैचिंग के ब्लू जूते और ब्लू मोजे।
“मैं यही रेलवे में नौकरी करता हूं.”
“और मैं केमेस्ट्री पढ़ाती हूं एक स्कूल में.”
थोड़ी देर गुफ़्तगू करने के बाद विशाखा ने ढलते सूरज की ओर देखा जो मानो विदा लेने को बेकरार था और शायद उसे भी घर जाने को कह रहा था।
थोड़ी देर बात वो घर पहुंची तो देखा उसकी मां एक प्लास्टिक सर्जन से बात कर रही थी
“हां काला धब्बा है बिल्कुल पैर के बीचो बीच
क्या कहा आपने ठीक हो सकता है.”
“जितनी फ़ीस बताई हमको मंजूर है.”
“परसो का अपाइनमेंट लिख लिजिए.”
“दूसरे दिन फिर विशाखा समुंदर किनारे टहलने के लिए आई, विष्णु की निगाह फिर उसके नीले जूतों पर पड़ी जिसमें उसके पैर बिल्कुल दिखाई दे नहीं रहे थे जो कि समुद्र की लहरों से पूरी तरह भीग जाया करते थे।
उसने सोचा वजह पूछ लें हर बार नीले जूते और मोजे ही क्यों चप्पल या सेंडल क्यों नहीं ?
फिर उसे लगा लड़कियां ना जाने किस बात का कब बुरा मान जाए तो चलो छोड़ ही दिया जाए इस बात को।
विशाखा गोरे रंग की मध्यम कद और घुंघराले बालों वाली साधारण नैन नक्श वाली लड़की थी। उसकी उम्र 28 साल थी।
विष्णु भी करीब उसकी ही उम्र का था जो कि स्थानीय निवासी नहीं था और मुंबई आए हुए उसे करीब 6 महीने ही हुए थे तो उसके चिर परिचित यहां थोड़े कम ही थे। ऐसे में वो विशाखा से शहर की कई अपरिचित बातें जानने लगा था और सलाह लेने लगा।
एक दिन विशाखा समुद्र किनारे टहलने आई ही नहीं, ये उन दिनों की बात है जब सभी मोबाईल फोन नहीं रखा करते थे।
मतलब कि लैंडलाईन से ही काम चला लेते थे जो कि उसके और विष्णु के घर पर था. उसने नंबर भी मांगा नहीं क्या पता उसके घर के लोगों को अच्छा लगता या नहीं उसका फोन करना, विशाखा ने भी विष्णु का नंबर नहीं मांगा, खैर उसके और विष्णु के बीच दोस्ती से आगे बात बढ़ पाई ही नहीं।
विशाखा कुछ दिनों बाद समुंदर किनारे आई और विष्णु को ढूंढने लगी लेकिन उसका ट्रान्सफर वापस हैदराबाद हो गया।
उन दोनों को मिले हुए 15 साल हो चुके थे। अचानक एक दिन एक औरत अपने 10 साल के लड़के के साथ विष्णु से पूछने लगी हैदराबाद से मुंबई जाने वाली ट्रेन को कितना वक्त है ?
क्योंकि विष्णु रेलवे में ही काम करता था तो उसे शक हुआ, वो बोली “क्या तुम विष्णु हो?”
विष्णु ने कहा “हां आप कौन ?”
विशाखा शादी के बाद काफी मोटी हो गई थी तो थोड़ा पहचानने में मुश्किल हुई।
“हां मैं विष्णु हूं.”
“मैं विशाखा समुद्र किनारे मिली थी तुमको.”
“ओह नीली जूती वाली” उसके मुंह से निकल गया।
वो हंसने लगी कहने लगी “मेरे पैर पर केमेस्ट्री लैब में केमिकल फैल गया था.”
जिसकी वजह से काला धब्बा बन गया तो मैं हमेशा जूते और मोजे पहनकर रहती थी।
“तो क्या हुआ” ? विष्णु ने कहा।
क्योंकि लड़की के पैरों से समृद्धी का परिचय होता है तो लड़के वालों की मां उसके पैर देखती थी जिसमें वो काला दाग भी दिख जाता तो बात वहीं आकर रुक जाती थी।
इस वजह से उसे अपने माता पिता के ताने सुनने पड़ते थे साथ ही रिश्तेदार भी उसको लेकर कड़वी बातें करते थे।
एक दिन तंग आकर उसकी मां ने उसके पैर की प्लासटिक सर्जरी करवा कर वो दाग ही हटवा दिया।
कुछ महीनों बाद उसकी शादी फ़िजिक्स एक प्रोफ़ेसर से हो गई।
थोड़ी ही देर में ट्रेन आ गई उसने इशारे से कहा कि वो जो अगली स्टेशन पर बुक स्टॉल से पेपर खरीद रहे है वो उसके पति है, और वो तेजी से उसकी तरफ बढ़ी, दोंनो पति पत्नी और उसका बेटा ट्रेन में सवार होकर चल दिए।
जाती हुई ट्रेन को देखकर विष्णु के दिल में ख़्याल आया कि कितनी छोटी छोटी बात को लेकर परेशान हो जाते है लोग। चांद में भी तो दाग है तो क्या वो खूबसूरत नहीं होता है ?
शिल्पा रोंघे
© सर्वाधिकार सुरक्षित, कहानी के सभी पात्र काल्पनिक है जिसका जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है।
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